विश्व शांति का सुदॄढ आधार : श्री अग्रसेन
आज शांति की खोज में सारा विश्व अशांत है। विश्व की वर्तमान परिस्थितियां युग संक्रमण काल से भिन्न नहीं। आज वस्तुतः आवश्यकता है – सनातन सभ्यता के पुनुरुत्थान की। जिसकी आधारशिला है : परस्पर प्रेम।
जिसके सहारे किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा भी, सदाचारण से विपुल स्वर्ग सहज ही पाया जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य है – पूर्णता को प्राप्त करना। सत्, चित्,आनन्द- मय होना। मानव ईश्वर का अंश है, तथापि पथभ्रांत मानव अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को भूल, क्लांत-अशांत जीवन जी रहा है ।
भाग्य जब जागते हैं, तो मानव को कोई सतगुरु अवश्य मिलते हैं ,जो उसे उसके ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान करा देते हैं । वह ज्ञान- जो अपने ( ईश्वर ) स्वरूप से विभक्त ( दूर हुए ) जन को, भक्त ( जुड़ा हआ ) बना दे, वही है – ‘भागवत’
महामानव श्री अग्रसेन जी का सम्पूर्ण चरित्र, देश, धर्म व काल की सीमाओं से परे, सारे मानव मात्र के लिये, संजीवनी की तरह, सदैव प्रेरणास्पद, प्रासंगिक, व अनुकरणीय है। लौकिक व पारलौकिक साधना का उत्तमोत्तम मार्ग है ।
परीक्षितपुत्र जनमेजय को सम्राट पद पर अभिषिक्त किया गया। धर्मज्ञ, प्रजावत्सल महाराजा जनमेजय में, अपने धर्मज्ञ होने का अहंकार जब समा गया तो उनके द्वारा किए गए यज्ञ में अहंकार के परिणाम स्वरुप उत्पन्न भ्रम से भ्रमित हुए महाराजा जनमेजय विचलित हो गए, और वे कुपित हो उठे । उन्होने इन्द्र को शाप दे दिया । ऋृत्विजों को अपमानित कर राज्य से निकाल दिया, और पतिव्रता पत्नी ‘महारानी वपुष्टमा’ को कुलटा घोषित कर, मसले हुए फूल की माला की तरह ठोकर मारकर, राजमहल से निष्काषित कर, उन्हे भगा दिया ।
सचिन्त्य घोरमत्यन्तं शांन्तिं न प्राप्नुते क्षणम् |
चिंताशोकपरीतात्मा मन्युना जनमेजय: ॥
कुरुकुल भूषण जनमेजय, बीते हुए भयंकर अतीत का स्मरण करके , क्षण भर भी, शांति नहीं पाते थे, उनका मन चिन्ता और शोक में डूबा हुआ था ।
तत् सामर्षं शोचमानम् क्रुध्दं पारिक्षितं नृपम् |
व्यासाशिष्यो वेदवित् स वच: प्रोवाच जैमिनि:॥
महाराजा श्री अग्रसेन एक ऐसे कर्मयोगी लोकनायक थे, जिन्होंने संघर्षं पूर्ण अपने आदर्शमय जीवन कर्मों से सकल मानव समाज को मानवता का पथ दर्शाया। उनका जीवन दर्शन चैतन्य आनंद की अगणित विशिष्टताओं से सम्पन्न, पवित्र, जगत के सब प्राणियों के लिये सुलभ, एवं सबके के लिये सुखद व समस्त जगत में शांति व सद्भाव का प्रदायक हो सकता है। भ्रमों में भटके वर्तमान विश्व में नवजीवन संचारित करने में सक्षम इस पुरुषार्थ गाथा के संदर्भ में ऋृषियों का कथन है –
एवं राजा सम्प्रणीतो मिथ्थ्या व्याशङि्कतात्मना ।
चकार शान्तिं परमां नृधर्मं जनमेजयात् ॥
अकारण ही जिनके मन में संदेह उत्पन्न होने से, जो अनर्थ की ओर अग्रसित हो गए थे, उन महाराजा जनमेजय को महर्षि जैमिनी द्वारा इसप्रकार ‘श्री अग्रसेन की यह पावन गाथा’ समझाने पर, उन्होने श्री अग्रसेन जी के समान ही मानव धर्म के हृष्ट पुष्ट आचरण से परम शांति धारण की ।
एतदाश्चर्यमाख्यानं मया प्रोक्तं सुखावहम् ।
मानवं धर्ममास्थाय कथा पुण्या प्रबोधिता ॥
महर्षि जैमिनी कहते हैं – मेरे मत से, यह आश्चर्य जनक आखयान, सुख को प्रदान करने वाला है। मानव धर्म की यह पवित्र दिव्य एवं मंगलकारी कथा है । जगत की जीवन नौका को विपत्ति के भंवर में डूबने से बचाने के लिये महामानव श्री अग्रसेन का प्रकाशवान चरित्र आलोक स्तंभ के रुप में विद्यमान है। जब मानव में मानव होने का गौरव जागृत होता है, तो स्वतः ही विकृतियां शिथिल पड़ने लगती हैं। आवश्यकता है – हम स्वयं को पहिचानें।
©- रामगोपाल’ बेदिल’