भगवान श्रीराम के वंशज : श्री अग्रसेन

महामानव श्री अग्रसेन जी सूर्यवंश में जन्मे। श्री अग्रसेन जी के जन्म के संदर्भ में विश्लेषित करते हुए महर्षि जैमिनी जनमेजय जी से कहते हैं –

इक्ष्वाकुकुलजानां हि शुध्दानां वंश आदित: |
न शक्यते विस्तरेण वक्तुमेकेन वत्सरै: ॥

जैमिनी जी ने कहा – हे जनमेजय ! आप तो जानते ही है इक्ष्वाकु कुल आदिवंश के रूप मे विख्यात है, जो कि परम विशुध्द एवं सात्विक वंश माना गया है इस वंश के, किसी एक का भी विस्तार से वर्णन वर्षो मे भी संभव नहीं है। ज्ञातव्य है कि इक्ष्वाकु कुल मे अनेकों पुण्यकर्मा महापुरुष हुए हैं जिनके प्रेरणास्पद जीवन की कथाएं प्रथक प्रथक अनेकों आख्यानों, उपाख्यानों, तथा विभिन्न पुराणों मे विस्तार पूर्वक विश्लेषित हैं ।

ज्ञातव्य है कि महाराजा श्री अग्रसेन के पुरुषार्थ की यह गौरवगाथा महर्षि जैमिनी जी द्वारा महाप्राज्ञ धर्मज्ञ जनमेजय जी को सुनाई गयी थी, जो वेदों सहित समस्त शास्त्रों व पुराणों के ज्ञाता थे, अतः इक्ष्वाकुकुल के केवल प्रमुख महापुरुषों का ही उल्लेख करते हुए वे कहते हैं –

किर्तिमन्तो हि मान्धाता, दिलीपोऽथ भगीरथ: |
रघु: ककुत्स्थ: सगरो मरुत्तो नृप राघव: ॥

महाराजा इच्छवाकु के इसी कुल मे  महाराज माधान्ता, सगर, दिलीप,भगीरथ, कुकुत्स्य, महाराजा मरूत्त, महाराज रघु, भगवान श्री राम आदि अनेकों कीर्तिवन्त राजा हुए हैं। जिनकी कथाएं जन जन मे पुण्य – स्मरण स्वरूप विद्यमान हैं।

महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में राजा अग्निवर्ण के दैवपुत्रों के सदृश्य पांच पुत्र हुए, जिनमें से तीन पुत्रों ने अपने वंश का विस्तार किया। तथा सूर्यकुल की कुल कीर्ति बढ़ाने वाले हुए । राजा विश्वसाह के पुत्र प्रसेनजित हुए, जिन्होने एक अजेय पुरी का निर्माण करवाया। प्रसेनजित के प्रतापी पुत्र वृहत्सेन हुए । वज्रनाभ के कुल मे जिस प्रकार महाराजा मरु के पुत्र वृहद्वल हुए। उसी प्रकार वृहत्सेन के कुल मे राजा वल्ल्भसेन उत्पन्न हुए।

भगवत्त्यां वल्लभेन प्राप्तो वंशकर: सुत: |
मनुष्याग्र्यस्य यस्यासीत् कान्तिश्चन्द्रसमो यथा ॥

राजा वल्लभसेन से विदर्भसुता महारानी भगवती को चंद्रमा के समान कांतिवान मनुष्यों मे अग्रगण्य, एक वंशकर ( अपनी विशिष्टताओं से युक्त शास्त्रानुकूल वंश व्यवस्था की संरचना करने वाला – जिसके नाम से वंशजों को जाना जाए ) ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ।

अतीत्यैकादशाहं तु नामकर्म तदाऽभवत् |
अग्रसेन इति प्रीत: पुरोधा नाम चाकरोत् ॥
श्रुतेऽथ शस्त्रे शास्त्रे च परेषां जीवने तथा |
चक्रे धातोरर्थयोगाद् अग्रनाम्नाऽऽत्मसम्भवम् ॥

जन्म से ग्यारह दिन बीत जाने पर उस बालक का नामाकरण संस्कार किया गया तब पुरोहित ने परम प्रसन्नता से उस बालक का ” अग्रसेन ” नाम निश्चित किया (जो कि लग्न से भिन्न था) । उन्होंने यह विचार करके उस बालक का नाम ‘ अग्र ‘ रखा कि, यह जीवन मे संपूर्ण शस्त्रों एवं शास्त्रों से आगे चला जाएगा । (आगे जाने के) इस अर्थ को सिध्द करने वाले स्वरुप को दृष्टिगत रखते हुए ”अग्र” नाम ही संभव (योग्य या सार्थक) है ।

इस प्रकार श्री अग्रसेन के जन्म का यह वृतांत, इक्ष्वाकु वंश की कीर्ति कथा है। भगवान श्री राम के वंशज हैं : सूर्यकुलभूषण श्री अग्रसेन।

©- रामगोपाल’ बेदिल’