अहिंसा का दिव्य आलोक : श्री अग्रसेन

पुण्य जीवन के भव्य मंदिर की नींव है – अहिंसा । अहिंसा वृत्ति के बिना न व्यष्टि का कल्याण संभव है और न ही समिष्टि का। सबसे ऊंचा मानवीय आदर्श जिसकी कल्पना मानव कर सकता है वह है- अहिंसा। महाराजा श्री अग्रसेन के हृदय में न केवल मानवमात्र के प्रति, अपितु प्राणीमात्र के प्रति दया व ममत्व भाव विद्यमान थे।

महर्षि गर्ग के आदेशानुसार महाराज श्री अग्रसेन नागलोक(पूर्वांचल प्रदेश) पहुंचे, और महर्षि उद्दालक के निर्देशानुसार वे परम ज्योर्तिलिंग ‘हाटकेश्वर’ के दर्शन कर, मणिपुर के उस उपवन में विश्राम कर रहे थे।

उपवन के सरोवर में नाग कन्याएं नागराजसुता ”माधवी जी”के साथ जल क्रीड़ा कर रहीं थीं। तभी, जल पीने के लिये, सांडों सहित, गायों तथा बछडों का समूह वहां आ पहुंचा। और सरोवर को घेर लिया। उसी समय, कोई हिंसक व्याघ्र (सिंह), भयावह घोरनाद करता हुआ वहां आ पहुंचा । जिसकी भीषण गर्जना से गायें, बछडें के साथ ही शांत हो गई, और भयातुर होकर कांपने लगीं।

स दृष्ट्वा चिन्तयित्वाऽग्र: सद्य: सत्यपराक्रम: ।
श्रेष्ठो धनुष्मतां वीरो दयाभावसमीरित: ॥

यह देखकर, (वहां विश्रांति कर रहे) सत्य सरंक्षक, पराक्रमी, श्रेष्ठ धनुर्धर, वीर श्री अग्रसेन का हृदय दया भाव से भर गया और पीडित मन से वे, गौ कुल के सरंक्षण हेतु विचार करने लगे।

ररक्ष विधिना गाश्च  बाणैर्व्याघ्रमताडयत् ।
शरसंनिचयस्थोऽयं तं गाव: पर्यवारयन् ॥

और तब , श्री अग्रसेन ने, उन गायों की रक्षा की भावना से, संरक्ष्य विधि से इस प्रकार बाण चलाए कि, व्याघ्र के चारों ओर बाणों के समूह का घेरा खडा कर दिया । और सहसा आए इस संकट से, सब को (गौकुल, नाग कन्याएं व सिंह सभी ) मुक्त कर दिया ।

‘अहिंसा’ दयाभाव तथा जीव मात्र के प्रति ममता का ऐसा उदाहरण सकल सृष्टि में अन्यत् कहीं दिखाई नहीं देता। हिंसक जीव की भी हिंसा ना करते हुए उसे केवल अवरुद्ध करके, उसके प्रति भी दया भाव दर्शाने वाले ‘महाराजा अग्रसेन’ का यह अद्‌भुत कर्म, मानवता का परम पोषक है, एवं सकल मानवमात्र का मार्गदर्शक भी, वस्तुतः श्री अग्रसेन जी का यह उपक्रम जीवमात्र के प्रति उनकी, न केवल सहानुभूति, अपितु समानानुभूति का भी अनुपम व दिव्य उदाहरण है ।

अहिंसा का जयघोष तो अक्सर सुनाई देता है, किन्तु केवल तोता रटंत की तरह। ”अहिंसा” की गूंज की आवश्यकता, मंदिरों के घड़ियालों में नहीं, वहां है – जहां हिंसा ताण्डव नृत्य कर रही है। पौराणिक भारत में जब स्वर्ग साधना स्वरूप, यज्ञों में पशुबली प्रचलित थी, तब श्री अग्रसेन के अहिंसा के पुण्य सिद्धांत साधना ने, वैदिक धर्म की प्रचलित व्यवस्थाओं और क्रियाओं पर ऐसी चिरस्मरणीय छाप मारी कि यज्ञ कर्म में पशुबली पर व्यापक अंकुश लगा।

श्री अग्रसेन ने केवल अहिंसा का उपदेश नहीं दिया, अपितु उसे जीवन कर्म बनाया, प्रचलित व्यवस्थाओं से विद्रोह तक करने से वे किंचित नहीं हिचके। ऐसे क्रांतिदूत श्री अग्रसेन ने यज्ञों में शास्त्रसम्मत पशुबली तक को नकार दिया। ग्लानिवश यज्ञ से विमुख हुए ‘महाराजा अग्रसेन’ को समझाते हुये ऋषिगण कहने लगे –

यज्ञार्थं पशव: सृष्टा: स्वयमेव स्वयम्भुवा ।
यज्ञश्च भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवध:॥

ऋृषियों ने कहा – हे राजन ! आपकी बात उचित है, किन्तु स्वयं ब्रह्मा जी ने यज्ञ के निमित्त एवं सिद्धियों की प्राप्ति हेतु पशुओं की सृष्टि की है, अतएव यज्ञ में दी गई पशुबली वध नहीं, अपितु अहिंसा ही है।

यह सुनते ही महामानव अग्रसेन के हृदय में करुणा व्याप्त हो गई। करुणा जब निरीह होती है तो आंसू बनकर छलक पडती है, किन्तु वही करुणा ……जब प्रतिकार की क्षमता से युक्त होती है तो – विद्रोह बनकर चिन्तन हेतु। प्रश्नचिन्ह खडा कर देती है।

क्रांतिदूत श्री अग्रसेन का वह प्रश्न आज भी सारी सृष्टि को झकझोर रहा है –

वृक्षांश्छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्।
यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते ???

श्री अग्रसेन ने कहा – हे मुनिवरों ! वनों को काटने वाले, पशुओं की हत्या करने वाले, तथा भ्रूण हत्यादि रक्तिम कर्म करने वाले ही, यदि स्वर्ग जाएंगे, तो फिर नर्क कौन जाएगा ???

      और …..इसप्रकार, श्री अग्रसेन जी ने अपना स्पष्ट अभिमत अभिव्यक्त किया – हे ऋृषिवरों ! मेरे विचार से तो इस प्रकार का आचरण कर्ता, धर्म पुरूष भी बाहर से पवित्र दिखने पर भी, भीतर से अपवित्र ही होगा । उत्तम लक्षणों से युक्त सा प्रतीत होने पर भी, वास्तव में वह उसके विपरीत ही होगा, तथा शीलवान दिखाई देने वाला वह वास्तव में दुःशील ही होगा।

महर्षे ! जगत में जो कदापि हिंसा के योग्य नहीं हैं (अर्थात जो निरीह तथा सर्वथा संरक्षण के योग्य हैं) ऐसे जीवों का अपने ही सुख की कामना करने वाला (स्वार्थी पुरुष) वध करके, इस लोक या परलोक में, भला कैसे किंचित भी सुख प्राप्त कर सकेगा ? ( अर्थात कदापि सुख नही पा सकेगा क्योंकि इस लोक में जीवन भर ग्लानिभाव हृदय को क्लेश देंगे। और मरने पर निश्चय ही उसे इस क्रूर कर्म के पाप का दण्ड भोगना ही पडेग़ा।)

व्यक्तिगत स्वार्थ के मोहवश, बिना अपकार या शत्रुता के ही, दूसरों के प्राणों की बलि देना, मेरी दृष्टि में कदापि योग्य नहीं। मान्यवर ! क्षत्रियों का प्रयोजन होता है – संकट में पडे प्राणियों की रक्षा करना, न कि अपने स्वार्थ के लिये उनकी हिंसा करना। बिना बैर के ही निरीह प्राणियों के प्रति क्रूरता पूर्ण व्यवहार, जगत में सबसे बडा पाप है। और ……श्री अग्रसेन जी ने दृढतापूर्वक बलिप्रथा को नकारते हुए कहा – मुझे नहीं चाहिये ऐसा स्वर्ग कि एक जीव के सुख के लिए दूसरे जीव की हत्या करना पडे।

स्वशरीरमपी परार्थे य: खलु दद्यादयाचित: कृपया ।
स्वसुखस्य कृते च कथं प्राणीवधक्रौर्यमनुमन्ये ॥

हे ऋृषिवरों! प्रभो! परोपकार के लिये तो मैं अपना यह, शरीर भी बिना मांगे भी दयाभाव वश देने के लिये सहर्ष तत्पर हूं। किन्तु स्वयं के सुख के स्वार्थ वश प्राणी वध की क्रूरता पूर्ण अनुमति भला कैसे दूं ?

जब ऋृषियों ने कहा – राजन ! क्षत्रियों के लिये कुछ भी दोष पूर्ण नहीं है, तथापि, तुम यदि इस यजित यज्ञ कर्म को पूर्ण नहीं करोगे तो, यज्ञांग का सम्यक रूप से सम्पादन नहीं होने के कारण, वैगुण्य आने से, संतति तथा प्रजाजनों का विनाश अटल है ।( यज्ञ कर्म अधूरा रह जाने के दोष से प्रजा तथा संतति का विनाश निश्चित ही कुफल के रूप में उत्पन्न होंगे।)

तो…परम अहिंसक श्री अग्रसेन ने कहा – महामुने ! मानवोचित अहिंसा मय कर्म ही महान तप है । पशुबलि भले ही क्षत्रिय कर्म हो, किन्तु अहिंसा लोक धर्म है और दोनों में श्रेष्ठ अहिंसा का पथ ही है। हे मुनिवरों ! मै निरपराधियों का (इस तरह) वध स्वीकार नहीं कर सकता । मैं अपनी प्रजा के हित रक्षण हेतु, उनका विनाश रोकने हेतु ऐसे हिंसा पूर्ण अपने क्षत्रिय धर्म का परित्याग करता हूं।

सत्यप्रतिश्रवा: सोऽहं वैश्यधर्ममनुपालये ।
प्रजानामानृशंस्यार्थं वैश्यं राज्यं व्रतोत्तमम् ॥

तब, प्रतिज्ञा करते हुए श्री अग्रसेन ने कहा – मैं सत्य की शपथ लेकर घोषित करता हूं कि अब मैं वैश्य धर्म का अनुपालन करुंगा। क्योंकि प्रजा का पालन, पोषण, रक्षण, और प्रजा मात्र पर दया की दृष्टि रखे, यही वैश्यों का दया प्रधान धर्म है , और यही उत्तम राज्य का भी धर्म है ।

इसप्रकार श्री अग्रसेन ने अहिंसा के लिये, दया भावना से युक्त लोकधर्म के निर्वाह के लिये यज्ञ विध्वंश से प्रजा पर आने वाले विनाश के कारणों को दृष्टिगत रखते हुए, अपने क्षात्रवर्ण की ‘आहूति’ दे दी और मानव सेवा के प्रतीक – ”वैश्य वर्ण ” को अपना लिया। यज्ञ की सम्पूर्णता के उपरांत अपने पुत्रों व प्रियजनों को अहिंसा का महत्व दर्शाते हुए श्री अग्रसेन ने कहा –

अहिंसा सर्वभूतानां नित्यमस्मासु रोचते ।
प्रत्यक्षत: साधयामो न परोक्षमुपास्महे ॥

वत्स ! किसी भी प्राणी की (मनसा-वाचा-कर्मणा) हिंसा न करना ही, मुझे तो सदा प्रिय लगता है, और हम तो प्रत्यक्ष (कर्म रूप में) साधक हैं, परोक्ष (केवल ज्ञानरूप) की उपासना नहीं करते। अर्थात – हमें अपने मन वचन तथा कर्मों में, नित्य ही अहिंसा की साधना करना चाहिये, हमारा आचार व्यवहार तथा सम्पूर्ण जीवन कर्म, अहिंसा की मूल भावना के अनुरूप होना चाहिये, केवल अहिेंसा का उद्‌घोष करना योग्य नहीं।

प्राणी मात्र के प्रति दयालुता का, करुणा का, अहिंसा की भावना को कर्म रूप में प्रतिस्थापित करने वाले बलिदान का, ऐसा अनुपम आदर्श उदाहरण इस जगत में, इसके अतिरिक्त और कहां ??? हिंसा से व्याप्त इस विषैले वातावरण में कर्मयोगी श्री अग्रसेन की अहिंसा के आलोक में, लोकोत्तर सजग संसार की जीवन्त स्थापना के हमारे प्रयासों में आप सादर आमंत्रित हैं।

©-रामगोपाल बेदिल