ईश्वर के एकात्मरूप प्रतिपादक : श्री अग्रसेन

धर्मान्धता के दुर्गुणों के कारण वर्ततान विश्व अशांत तथा मानवीय इतिहास, कलंकित हो रहा है। यूं तो हर व्यक्ति कहता है – ईश्वर तो एक है। किन्तु फिर भी व्यर्थ अभिमान करके, आन्वीक्षिकी ( छिद्रन्वेशी ) तथा निरर्थक तर्क विद्या ( बुद्धिविलास ) में अनुरुक्त होकर, अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के चक्कर में दूसरों की निन्दा करता है, यह दुर्गण आज ही नहीं, पौराणिक काल में भी विद्यमान था।

शैवों तथा वैष्णवों की धर्मान्धता के दुर्गुणों एवं भयंकर द्वंदों तथा रक्तपात के दुराचरण से तो, मानवीय इतिहास सदा कलंकित रहा है। भ्रमों के भंवर में फंसे नागों को, महामानव श्री अग्रसेन जी ने ईश्वर के ऐकात्म स्वरूप का सहज तथ्यों सहित विश्लेषण करते हुए बताया –

हे नागेन्द्र ! जिस प्रकार भक्ति और ज्ञान भिन्न नहीं होते, भक्ति बिना ज्ञान नहीं होता, और ज्ञान बिना भक्ति नहीं होती, शिवजी ज्ञान के प्रतीक हैं और भगवान विष्णु भक्ति के । उसी प्रकार शिव और विष्णु भिन्न भिन्न नहीं आपका ईश्वर के रुप में भेद करना उचित नहीं। ईश्वर तो एक है।

इस प्रकार, हे नागेन्द्र ! माया के तीनों गुणों से रहित होकर, स्थित निराकारी भगवान ‘शिव’ तथा माया से संयुक्त सगुण साकार रुप भगवान ‘श्री विष्णु’ में, कोई भेद नहीं है, जिस प्रकार स्वर्ण में और स्वर्ण से निर्मित आभूषण में कोई भेद नहीं होता। उसी प्रकार हे नागेन्द्र ! वस्तुतः ईश्वर तो एक ही है।

यथैक एव सूर्योऽयं ज्योतिर्नानार्च्यते जनैः ।
जलादि च विशेषेण दृष्यते तत्तथैव तौ ॥

हे पन्नगपति ! जिस प्रकार एक ही सूर्य के लोगों को, चंचल जल में अनेक सूर्य दिखाई देते हैं, उसी प्रकार वह परम पिता परमात्मा एक होते हुए भी भ्रांति के कारण ही, अनेक रुपों में भासमान होते हैं, वस्तुतः ईश्वर तो एक ही है।

ज्ञातव्यः उर्ध्वरेता का एक अर्थ होता है – तपस्वी, और दूसरा ऊपर देखने वाला दोनों को सूर्य (ईश्वर) एक ही दिखाई देता है, किन्तु सागर की लहरों के किनारे बैठे व्यक्ति को, जिस प्रकार हर लहर के साथ सूर्य के भिन्न स्वरुपों का भास होता है, उसी प्रकार संसार सागर में मन की चंचल लहरों के कारण ईश्वर में भिन्नता दिखाई देती है, किन्तु स्थिर जल (मन) में, अर्थात् आत्मदर्शी होने पर सूर्य ( ईश्वर ) एक है, यह स्पष्ट आभास हो जाता है। महामानव श्री अग्रसेनजी ने अपने इस दर्शन से, भिन्न धार्मिक दर्शनों के गूढ़ रहस्यों को सहज तथ्यों सहित विश्लेषित कर, युगयुगांतर से पल रही शैववैष्णव कटुता व शत्रुता को, घनिष्ट मित्रता में परिवर्तित कर दिया।

आज के इस विषैले धर्मान्धता के वातावरण में जकडे विश्व के मानव मात्र के लिए श्री अग्रसेन जी का मार्गदर्शक जीवनवृत्त सर्वाधिक प्रेरणास्पद तो है ही, प्रासंगिक भी है। विदुजन ‘महाराजा अग्रसेन’ के चित्र के साथ साथ उनके दिव्य चरित्र का चिंतन कर, उसे प्रकाशित करने का प्रयत्न करें, हमारा यही विनम्र निवेदन है।

©- रामगोपाल ‘बेदिल’