पराक्रम के प्रांगण में क्षमतावान : श्री अग्रसेन
महाभारत के युद्ध के समय श्री अग्रसेन साढ़े पंद्रह वर्ष के थे।भगवान श्रीकृष्ण के भी बहुत समझाने एवं अनुनय विनय करने पर भी, पाण्डवों को उनके पूर्वजों द्वारा अर्जित राज्य देने के, समस्त प्रस्तावों को, जब कौरवों ने नकार दिया तब सत्य तथा धर्म की रक्षा हित युद्ध आवश्यक हो गया तो युद्ध में अपने पक्ष से संघर्ष हेतु, सभी मित्र राजाओं को दूतों द्वारा निमंत्रण भेजा गया।
पाण्डवदूत ने श्री वृहत्सेन की महाराज पाण्डु से मित्रता को स्मृत कराते हुए, राजा वल्ल्भसेन से अपनी सेना सहित युद्ध में सम्मलित होने का निमंत्रण दिया। महाराज वल्लभसेन ने पाण्डवदूत को आश्वास्त किया। तब, युवराज श्री अग्रसेन ने अपने युद्ध में सम्मलित होने का, अपना महत्वपूर्ण मनोगत सहर्ष व्यक्त किया। किन्तु श्री अग्रसेन की बाल सुलभ अवस्था को दृष्टिगत रखते हुए जब उन्हे युद्धभूमि में न्यस्त करने में, महाराज वल्लभसेन ने असहमति दर्शाई, तो श्री अग्रसेन ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए निवेदित किया –
अधुर्यवच्च वोढव्ये मन्ये मे मरणं हि तत् |
भवान् तात व्दितीयं मां सहायं नय मा चिरम्॥
हे भवान ! पिताश्री !यदि मेरे जैसा वीर युवक समय पर ,पराक्रम का प्रदर्शन न करे, भार ढोने के समय बिना नथे हुए बैल के समान बैठा रहे, मेरे मत में यह तो – उसके लिये तो मरण के सदृश्य ही है, अतः आप योद्धा के रुप मे न सही, पिताश्री ! मुझे अपने द्वितीय सहायक के रुप में ही , अवश्य ले चलिए। अब इस कार्य में विलम्ब, योग्य नहीं।
राजा वल्लभसेन पुत्र के, इसप्रकार, मन को प्रिय लगने वाले वचनों को सुनकर ,गद्गद् हो, उसे अपने सीने लगा लिया। उसीप्रकार माता विदर्भनन्दिनी भगवती देवी ने वीरांगना की भांति अपने पुत्र को धर्मयुद्ध में जाने की न केवल स्वीकृति अपितु आदेश देते हुए कहा –
सत्यधर्माभिरक्षार्थं पुत्र गच्छ ममाज्ञया॥
माता वैदर्भी ने कहा – हे पुत्र ! तुम वीर हो ! अपने सत्य तथा धर्म की रक्षा हित तुम इस युद्ध में अवश्य जाओ यह मेरा आदेश है ।
माता विदर्भनंदिनी ने श्री अग्रसेन की भावना को जानते हुए ही यह बात कही –
सत्यार्थे धर्मकामार्थे त्वयास्म्यग्र सपुत्रिका |
वत्स अग्रसेन ! मैं जानती हूं कि सत्य की विजय हेतु, धर्म की स्थापना के लिए, क्षत्रियों के लिए, नियतकर्म करने के लिए ही, तुम इस महायुद्ध में सम्मिलित होने जा रहे हो।माता वैदर्भी की आज्ञा प्राप्त कर कुमार श्री अग्रसेन भी महाभारत युद्ध में सम्मलित हुए। युद्धभूमि में दसवें दिन भीष्मपितामह के बाणों से बिंधकर महाराजा वल्लभसेन वीरगति को प्राप्त हो गए। अट्ठारह दिन युद्ध चला। कौरव विनिष्ट हुए। युद्ध समाप्त हु
कुमारस्याग्रसेनस्य युद्धेऽपश्यं महब्दलम् |
पितुर्वधेन सन्तप्तोऽप्यहंश्च शतशोऽप्यरीन् ॥
महाराजा युधिष्ठिर ने कहा – वत्स ! मैंने युद्धभूमि में, कुमार अग्रसेन के महाबल को देखा है ( महाबल = युद्धकला युक्तशक्ति एवं धर्मबल से युक्त दयालुता ) जब पिता के वध का संताप हृदय में गहन रोष पैदा कर रखा होगा, तब भी सैकड़ों निशस्त्रों एवं दया-याचकों को युद्धस्थल में जीवनदान देनेवाला यह अग्रसेन वास्तव में ‘धर्मवीर’ है ।
कृपाविष्टेन मनसा युद्धक्षेत्रगतोऽप्यसौ|
अग्रसेनस्त्वयं धन्यो येनात्मविजय: कृत:॥
महाराजा युधिष्ठिर ने कहा – जिस वीर पुरुष के हृदय में युद्धक्षेत्र में जाने के बाद भी, करुणा विद्यमान रहे, ऐसा वीर – वत्स अग्रसेन धन्य है । धन्य है – अग्रसेन ! जिसने मेरी आत्मा पर विजय प्राप्त कर ली है।
वस्तुतः श्री अग्रसेन का यह सुकृत्य उनकी क्षमा से युक्त क्षमता का प्रतिपादक है। क्षमता तभी पूज्य होती है जब हृदय में प्राणी मात्र के प्रति ममता का भाव विद्यमान हो, इसीलिए धर्मराज युधिष्ठिर ने इसप्रकार श्री अग्रसेन जी की क्षमता की प्रशंसा की।
भगवान श्री कृष्ण के आशीर्वचनों तथा पाण्डवों के स्नेह से परिपूर्ण, क्षमता के धनी श्री अग्रसेन ने कुमार अवस्था में ही पराक्रम के प्रांगण में जो क्षमता दर्शायी वह मानव मात्र के लिए, एक आदर्श शलाका की भांति सदैव प्रज्वलित होती रहेगी।
श्री अग्रसेन के आदर्शमय यथार्थ जीवन में पग पग पर ऐसे अनेकों उदाहरण विद्यमान हैं।
©- रामगोपाल’ बेदिल’