नारी गरिमा के प्रतिपादक : श्री अग्रसेन
जब स्वयंवरा नागकन्या माधवीदेवी ने, श्री अग्रसेन जी के ऊंचे कन्धों के मध्य शोभित गले में, परम सुन्दर फूलों का हार डालकर, उनका पति रूप में वरण कर लिया। तदुपरांत, नागराज महीधर ने, अपनी अन्य कन्याओं को सम्मुख करते हुए कहा – जंवाई राज श्री अग्रसेन ! आप मेरी इन अनुराग तथा उत्तम भक्ति से युक्त कन्याओं के साथ भी मंत्रोच्चार सहित पाणिग्रहण कीजिये ।
तब, व्याकुल तथा व्यथित होकर मनस्वी श्री अग्रसेन ने नागेन्द्र के अभिमत को नकारते हुए उनसे अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा –
कथं नु वा मनस्विन्या: माधव्या: पाणिपङ्ग्कजम् ।
गृहीत्वा नागदुहितु: लोकेऽधर्मं चराम्यहम् ॥
हे नागराज! मैं मन को वश में रखने वाला मनस्वी पुरुष, लोकधर्म का उत्तम आचरण करने वाला, नागराज की दुहिता माधवी देवी का वरण कर लेने के उपरांत अब, अन्य का पाणिग्रहण कैसे कर सकता हूं ? अर्थात् कदापि नहीं कर सकता।
अनियोज्ये नियोगे मां न निभुङ्क्ष्व महामते ।
भगिन्यो धर्मतो या मे तत्स्पर्शं त्वं कथं वदे:॥
हे श्रेष्ठज्ञान सम्पन्न नागेन्द्र ! इस प्रकार तो आप मुझे ऐसे अनुचित कार्य में लगाना चाह रहे हैं, जो कदापि योग्य नहीं है, पत्नी की अन्य बहिनें, ये सब मेरे लिये धर्म की दृष्टि से बहिनें ही हैं, अतः आप मुझसे भला इस प्रकार कैसे कह रहे हैं। अर्थात् आपका कथन कदापि उपयुक्त नहीं ।
श्री अग्रसेन की भावनाएं उपरोक्त कथन से स्पष्ट हैं, साथ ही उन्होने इसे अधर्म मानते हुए नागराज से विनम्रता पूर्वक निवेदन किया –
अधर्मात् पाहि नागेश मां धर्मं प्रतिपादय ॥
हे निष्पाप नागेन्द्र ! आप मुझे इस तरह अधर्म में न डालें, अधर्म से बचाइये और मुझे धर्म का पालन करने दीजिये, मुझे धर्म पथ पर चलने दीजिये।
इसप्रकार श्री अग्रसेन को दृढ़वती व धर्मपथ पर अडिग देख, नागराज महीधर ने उन्हे अनेकों प्रकार से बहलाने, फुसलाने, व मनाने के विफल प्रयास किए, अन्तोगत्वा द्रोपदी के प्रसंग को आधार बनाकर, कटाक्ष करते हुए वे बोले-
नृपस्य बहव्यो विहिता महिष्यो लोकसम्मता:।
श्रूयन्ते बहव: पुंस: एकस्या: पतयोऽपि च
हे राजन ! आपके नर लोक के राजाओं की अनेक रानियां होना तो लोकमान्य है ही, किन्तु हमने तो सुना है कि वहां एक ही कमनीय नारी के अनेक पुरुष पति भी होते है ? क्या यह सच नहीं ?
नरेन्द्र ! मैं तुम्हे बहु विवाह की अनुमति प्रदान करता हूं। आप संकोच न करें, इन सबका क्रमशः पाणिग्रहण करें। आपको इस विषय में किसी प्रकार की ( पाप, पुण्य, लोककथन, नीति, धर्म आदि ) चिन्ता नहीं करना चाहिये।
तब नारी की गरिमा तथा महत्ता प्रतिपादित करते हुए श्री अग्रसेन जी ने कहा –
अधर्मोऽयं मतो मेऽद्य विरुद्धो लोकगर्हित: ।
ततोऽहं न करोम्येवं व्यवसायं क्रियां प्रति ॥
श्री अग्रसेन ने कहा – हे नागराज ! (जैसा आपने कहा) मेरी राय में तो, यह अधर्म ही है, और यह लोक तथा लोकहित दोनों के विरूद्ध है, इसलिये मैं लोक-धर्म विरोधी ऐसे आचरण को, व्यवहार में कदापि नहीं ला सकता ।
आत्मनो य: श्रुतो धर्म: स धर्मो रक्षति प्रजा: ।
शरीरं लोकयात्रां च धनं स्वर्गमृषीन् पितृन् ॥
हे नागराज ! पत्नी, पति का आधा अंग होती है, यह श्रुति का स्पष्ट वचन है। वह धर्म सहित, प्रजा, शरीर, लोकजीवन, धन, स्वर्ग, ऋृषि तथा पितरों आदि इन सबकी रक्षा करती है।
कृतदारोऽस्मि नागेन्द्र भार्येयं दायिता मम ।
पुरुषाणां च नारीणां सुदु:खा ससपत्नता ॥
हे नागेन्द्र ! मैं विवाह कर चुका हूं। ये मेरी प्रिय पत्नी ( माधवी ) विद्यमान है। सौत का रहना केवल नारी के लिये ही अत्यंत दुःखों का कारण नहीं, अपितु पत्नी की सौत का होना, पुरुष के लिये भी सदा ही दुःख का कारण रहता है।
इस प्रकार अपने एक पत्नी धर्म पर दृढवती श्री अग्रसेन ने नारी की गरिमा प्रतिपादित करते हुए अपना दृढ़ निश्चय निर्णयात्मक शब्दों में कहा –
न चान्यासां पतिरहं सत्यमेतत् वचो मम ॥
अब इन माधवी देवी के अतिरिक्त मैं अब अन्य किसी का पति नहीं हो सकता। यह मेरा सत्य वचन है।
आइने की भांति साफ है कि बहुपत्नी प्रथा के उस काल में भोगवादी संस्कृति पर अंकुश लगाते हुए महामानव श्री अग्रसेन ने नारी की गरिमा स्थापित करने में जो क्रांतिकारी योगदान दिया वह सारे मानव समाज के लिए प्रेरणास्पद प्रकाश स्तंभ है।
©- रामगोपाल ‘बेदिल’